लिखने के लिए कलम उठाता हूं
तो कलम के गले में स्याही अटक जाती है
मानो वो मेरे गले में अटकी बातों से
तारतम्य बना रही हो
कागज पर उतरते टूटे शब्द
बेमन से काम में लगे
मजदूरों सदृश लगते हैं
मैं अपने हाथों को झिड़क-झिड़क
ढोंग-पाखंड, अहं, धन-लोलुपता
ख्याति-लालसा
जाने कितनी नवागत प्रेत-बाधाओं को
अपनी लेखनी से
छुटाने का यत्न करता हूं
मगर अक्षरों के सीनों पर चढ़ी ये
इन्हें मार सकने में असफल रहने पर भी
इन्हें विक्षिप्त तो कर ही देती हैं
लोग कहते हैं
ये प्रेत-बाधाएं नहीं हैं
तुम्हारी कलम पुरानी हो गई है
आज के जमाने में
यदि बाप-दादाओं की कलम से लिखोगे
तो टूटे शब्द ही निकलेंगे।
Tuesday, November 13, 2007
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2 comments:
Jab jab main Tute shabd pata hoon to aisa lagta hai ke yeh matra ek kavita nahin hai varan ek Kavi ke Hirday ki Pukar hai, iska ek-ek shabd cheekh cheekh kar apni gatha bayan karta hai. Vakai yeh pen se likhi nahin lagti apitu aisa lagta hai Apne Man ki kalam ko Atma ki siyahi mian dubo kar kikha hai.
Jainendra Mohan
जैनेन्द्र जी, आपको कविता अच्छी लगी इसके लिए धन्यवाद। मेरा मानना है जो अतुकांत कविताओं का आनंद उठा सकते हैं, वे भी कही न कही से कवि-ह्रदय रखते हैं और अगर लिखते नहीं तो लिख सकते हैं। और फिर आपकी हिंदी तो बहुत समृद्ध लगती है। तो फिर कुछ आपकी ओर से भी हो जाए....
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