Wednesday, November 7, 2007

कुआं बने, कुंए का मेंढक नहीं...



‘पड़ोसी की ढाह’ सर्वविदित है और यह युगों से चली आ रही है। हम कह सकते है कि यह ईसाई धर्म के जन्म से और हमारी वर्तमान काल-गणना की पद्धति से भी पुरानी है, क्योंकि शायद इससे ही दुखी होकर ईसा मसीह ने कहा था ‘लव योर नेबर एज़ यू लव योरसेल्फ’ अर्थात् अपने पड़ोसी से उस प्रकार प्रेम करो जैसे तुम स्वयं से प्रेम करते हो। मगर इसकी जीवंतता के आगे ईसा मसीह के उपदेश की एक न चली। नतीजतन अब ईसा के उपदेश को चंद लोग जानते हैं और ‘पड़ोसी की ढाह’ हर पड़ोस में मुस्करा रही है। ‘पड़ोसी की ढाह’ हिन्दी की प्रगति में भी बहुत बाधक है, यही बताना मेरे इस लेख का प्रयोजन है। हाल ही में मैं इसका शिकार भी हुआ।
हिन्दी की प्रगति में ‘हिन्दी ब्लागिंग’ बहुत अच्छा और महत्वपूर्ण कार्य कर रही है। इसमें लगे सभी बन्धु बहुत बधाई के पात्र हैं। इनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। कम्प्यूटर पर ब्लाग के बारे में मेरी जानकारी न के बराबर थी और शायद अब भी बहुत कम है। मैं बस इतना जानता था कि ब्लाग के माध्यम से आप अपने विचारों को इन्टरनेट पर प्रकाशित कर सकते हैं और यह काम अब हिंदी में भी हो रहा है। हिंदी में काम करने और अपने विचारों को प्रकाशित करने की मुझे भी बड़ी उत्सुकता थी। मगर कई समस्याएं थी। पहली तो यह कि अपने कम्प्यूटर पर फ़ॉन्ट के लिए हिंदी समर्थन कैसे लिया जाए ताकि हिंदी सही रूप में ई-मेल तथा अन्य इंटरनेट फाइलों में दिख सके। इसके बाद दूसरी समस्या यह थी कि ब्लाग बनाया कैसे जाए, क्योंकि मैंने न तो ई-ब्लागर का नाम सुना था और न ही वर्ड प्रेस, वर्ड प्रेस.कॉम जैसे अन्य साधनों के बारे में ही जानता था। मेरे ही कार्यालय में मेरे ही साथ काम करने वाले एक व्यक्ति हैं जिन्हें मैं हिन्दी में इन्टरनेट पर कार्य करते देखता था। अतः मैंने उत्सुकतावश कई बार उनसे पूछा कि आप नेट पर हिंदी में कैसे काम करते हैं; हमारे कम्प्यूटर एक जैसे हैं, कार्यालय का सर्वर एक है, फिर सिर्फ आपके कम्प्यूटर पर ही हिंदी में काम कैसे हो पाता है। मैंने उनसे कितनी बार अपनी उत्सुकता दिखाते हुए इस संबंध में बातें करने का प्रयास किया यह तो मुझे याद नहीं, मगर मुझे अपने अंतिम तीन प्रयास याद हैं। एक बार उन्होंने सिर्फ मुस्करा कर गर्दन हिलाई थी और हूंsssम कहकर पुनः अपने ब्लाग में खो गए थे। दूसरी बार उन्होंने एक छोटा-सा उत्तर दिया था- “मैंने अपने कम्प्यूटर को कॉनफिगर्ड कर लिया है।”मुझे लग गया कि ये मुझे आसानी से नहीं बताने वाले। अतः तीसरी बार जब मेरे प्रश्न का उन्होंने पुनः टालने वाला यह उत्तर दिया कि “सब कुछ कम्प्यूटर में ही मौजूद है, बताऊंगा” तो मैंने सहकर्मी का अनौपचारिक प्रेम प्रदर्शित करते हुए उनका हाथ पकड़कर उनसे कहा-“नहीं नहीं, मेरे कम्प्यूटर पर चलकर मुझे बताइए ”, तो वह फिर भाव खा गए और झिड़क कर बोले- “यह क्या कर रहे हैं, छोड़िए मैं काम कर रहा हूं, बाद में बता दूंगा।” मामला स्पष्ट था- कार्यालय में उनकी जो थोड़ी-बहुत साख थी, उनके कम्प्यूटर ज्ञान और कई ‘बड़े-बड़े लोगों’ से ब्लागिंग से जुड़ी बातें करने के लिए ही की जाती थी। चूंकि हम हिंदी अनुभाग में कार्य करते हैं और हिंदी सेवा से जुड़े हैं, उन्हे यह भय हमेशा सताता रहता कि कहीं दो-चार और लोगों को हिंदी में ब्लागिंग आदि का ज्ञान हो गया तो उनकी साख गिर जाएगी। आखिर लोग उन्हें इसके लिए ही तो भाव देते हैं, फिर लोग भाव देना ही बंद कर देंगे। मेरे इस मित्र की ‘हिन्दी सेवा-भाव’ पर मेरा कोई संदेह नहीं है। अपने ब्लाग पर वह हिन्दी के लिए वाकई बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं और शायद लोगों को सहायता भी दे रहे हैं। मगर ‘पड़ोसी की ढाह’ ने उन्हें चपेट में ले लिया था और उन्हें मुझ जैसे अपने पड़ोसी की सहायता नागवार गुजरी। मगर जहां चाह, वहां राह। मैंने निश्चय कर लिया था कि मैं अपने कम्प्यूटर को इन्टरनेट पर हिन्दी में काम करने लायक बनाकर ही दम लूंगा। ‘गूगल सर्च’ के जादुई पिटारे को जानता था। अतः मैंने गूगल सर्च में ‘हिंदी टाइपिंग आन नेट’, ‘हिंदी सपोर्ट आन विंडोज़’, ‘यूनिकोड टाइपिंग इन हिंदी’ जाने कितने भिन्न-भिन्न शब्दों को डाला और उनसे मिलने वाली सामग्री का अध्ययन शुरू किया। यह तो अवश्य हुआ कि मुझे कम्प्यूटर पर हिंदी समर्थन हासिल करने में काफी सिर खपाना पड़ा पर अंततः मैं सफल हुआ। इसी दौरान श्रीश भाई के ई-पंडित से टकराया और उनके द्वारा अपने ब्लाग पर दी गई जानकारी से बहुत सहायता मिली। इसके लिए मैं उनका सदैव आभारी रहूंगा। गूगल सर्च से ई-ब्लागर मिला और इसकी सरल प्रक्रिया का अनुसरण कर मैंने अपना ब्लाग बना लिया। मैंने तो अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया, मगर ‘हिंदी-सेवा’ का डंका पीटने वाला कोई व्यक्ति ऐसी मानसिकता रखे यह बात मेरी समझ में नहीं आई। हम जब हिंदी के प्रचार-प्रसार की बात करते हैं तो हमारा प्रयास होता है कि हम अधिक से अधिक लोगों से संपर्क कर उन्हें हिंदी में काम करने के लिए प्रेरित कर सके और उन्हें यह बता सके कि अब हिंदी में सारे कार्य किए जा सकते हैं और आधुनिक प्रौद्योगिकियों से हिंदी अछूती नहीं है। चूंकि प्रौद्यिगिकी के क्षेत्र में अंग्रेजी का वर्चस्व है, हिंदी के प्रचार कार्य के संबंध में अभी यह कहा जा सकता है कि इस समय कुंए को यह बताने के लिए प्यासे के पास जाना पड. रहा है कि उसके पास भी पानी है। मगर यदि ऐसा ही कोई कुंआ अपने पास आए प्यासे को पानी देने से इंकार कर दे और इस बात का ढिढोरा पीटे की मैं प्यासे को ढूंढ कर पानी पिलाता हूं तो आप इसे क्या कहेंगे। मैं तो समझता हूं कि मेरे मामले में यह और कुछ नहीं ‘पड़ोसी की ढाह’ ही थी और यह केवल संकुचित मानसिकता ही दर्शाती है। मुझे नहीं पता कि और कितने कुंए इसी प्रकार की मानसिकता लिए लोगों की प्यास बुझा रहे हैं, मगर यह मानसिकता निश्चित रूप से हिंदी की प्रगति में बाधक है। ऐसे कुंओं से मेरा अनुरोध है कि सच्चे कुंए बनने का प्रयास करें। इस विशाल कार्य के लिए विशाल ह्रदय और विशाल नजरिए की आवश्यकता है; संकुचित ह्रदय और संकुचित नजरिया कुंए का नहीं बल्कि कुंए के मेंढक का होता है।

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