कविताएं
अटपटे अनबने अनबूझे
शब्दों के मकड़जाल में उलझी
बेतरतीब अनुभवों के चिथड़ों में लिपटी
खुद से ही बड़बड़ाती कविताएं
टूटी बिखरी भावनाओं का
दबी कुचली कुंठाओं का
वमन करती कविताएं
सत्य को नंगा करने का
झूठ को सरेबाज़ार थप्पड़ मारने का
रचनाकार की सत्यधर्मिता का
पांडित्य का
दम भरती कविताएं
भावुक ह्रदय के स्पंदन का
परपीड़ा से विचलित हो जाने का
ढोंग करती
ऊसर-बंजर कविताएं
वेश्याओं की भांति बिकने को
ग्राहकों उर्फ प्रकाशकों की ओर
ललचायी दृष्टि से तकती
उनकी चाहत के अनुरूप
रूप सज्जा करती कविताएं
हर गली में खड़े
म्यूनिस्पैलिटी के घिसे-पिटे
नल सदृश स्तब्ध आम-आदमी के
दिशाहीन बौखालाए विचारों को
अपने पतीलों में पहले भर सकने के लिए
निचले तबके की फूहड़ स्त्रियों की भांति
एक-दूसरे से
गाली-गलौज करती कविताओं
उच्छिष्ट पर
टूट पड़ने को लालायित
असंख्य अदृश्य बिलों से
निकलती अनगिनी कविताओं
तुमने कितनी ही स्वस्थ लेखनियों से चिपटकर
उन्हें मूर्च्छित कर दिया है
खुद से बड़बड़ाती कविताओं
तुमने
हकलाने को फैशन बना दिया है
फिर तुम्हारे हकलाते शब्द
शून्य में यदि खो जाते हैं
लोगों को नीरस और उबाऊ लगते हैं
तो व्यथा क्यों
रूके-सड़े पानी में
झुंड की तरह जन्म लेती तुम
यदि जन्म लेते ही
मसल दी जाती हो
तो रूदन क्यों
क्रंदन क्यों ?
Monday, October 29, 2007
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