तुम जाने, हे प्राण, किधर थे !
आमों पर मंजरियां छाई थीं,
तुम जाने, हे प्राण, किधर थे!
कोयल की कुहू-कुहू से
मन में टीस सी उठ जाती थी,
न जाने उस बार फाग में
कोयल फीका क्यों गाती थी।
आंगन में अल्हड़ पसरी
धूप बहुत ही अलसायी थी,
तुम जाने, हे प्राण, किधर थे !
हंसते-खिलते चेहरों पर
उपहासों का भाव सजा था,
त्योहार उदास गए थे
किसी चीज़ में नहीं मज़ा था।
न जाने किसकी यादों में
हवा बहुत ही बौराई थी,
तुम जाने, हे प्राण किधर थे!
दूर राह पर तकती पलकी
नींद से बोझिल हो जाती थीं,
तभी तुम्हारे स्पर्शों से
हवा मुझे दुलरा जाती थी।
कहीं मिलन पर प्रीत-प्रेम के
बज उठती फिर शहनाई थी,
तुम जाने, हे प्राण किधर थे !
Tuesday, November 13, 2007
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